हैदराबाद विश्वविद्यालय की स्थापना 
विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे कुछ न कुछ शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक-सांस्कृतिक उद्देश्य होता है. हैदराबाद विश्वविद्यालय की स्थापना भी इसी मूल्यों को लेकर हुई. 1970 के दशक में तेलंगाना क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन को दूर करने के लिए आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर एक व्यापक आंदोलन की शुरूआत हुई. जब यह आंदोलन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के लोगों के बीच तेजी से फैलाने लगा और अलग तेलंगाना राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हस्तक्षेप किया. उनकी समझ में यह तरकीब आयी कि तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से अलग किए बिना भी उसका विकास किया जा सकता है.  परिणामस्वरूप तेलंगाना के विकास के लिए एक रूपरेखा तैयार की गई जो सिक्स पॉइंट फॉर्मूला के नाम से प्रसिद्ध है. इस फॉर्मूला के जरिए तेलंगाना के लोगों के अधिकार को सुरक्षित करना था और उसके सामाजिक-आर्थिक विकास एक गति देनी थी. इसी सिक्स पॉइंट फॉर्मूला का जो दूसरा पॉइंट था- वह हैदराबाद में एक नए केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर था.
इंदिरा गांधी ने संसद में एक अधिनियम पारित कर 1974 में विश्वविद्यालय की स्थापना की मंजूरी दी. स्थापना के शुरुआती समय में विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गतिविधि, सरोजनी नायडू के परिवार ने जो भवन विश्वविद्यालय को दान में दिया, उसमें चली. जो हैदराबाद शहर के मध्य में अवस्थित था. उसके बाद 1975 में राज्य सरकार के द्वारा विश्वविद्यालय की स्थापना के उद्देश्य से 2,374 एकड़ ज़मीन आवंटित की गयी. (जो ज़मीन उस समय के शहर से दूर थी,  लेकिन अब तो शहर का विस्तार विश्वविद्यालय तक हो गया है.) मुख्य बात ये है कि ज़मीन आवंटित तो हुई लेकिन ज़मीन का मालिकाना हक विश्वविद्यालय को उस समय नहीं दिया गया और इस पर उस समय किसी का ध्यान भी नहीं गया. 
 
यूनिवर्सिटी की ज़मीन से जुड़े विवाद का इतिहास 
विश्वविद्यालय की ज़मीन बहुत पहले से विवाद का विषय बनी हुई है. अतीत में भी ज़मीन के अतिक्रमण की कोशिश हुई. विश्वविद्यालय की ही ज़मीन में गच्चीबोली स्टेडियम,  IIIT, बस डिपो, पॉवर स्टेशन आदि की स्थापना हुई है. लेकिन इस सबके लिए ज़मीन या तो विश्वविद्यालय ने अपने हित को देखते हुए दिया या खेल और शैक्षणिक संस्थान की स्थापना के लिए दिया. लेकिन जो अभी 400 एकड़ ज़मीन हड़पने की कोशिश तेलंगाना सरकार के द्वारा हो रही है, उसका इस्तेमाल न ही शैक्षिक परिसर के विस्तार के लिए होगा; न खेल संबंधी गतिविधियों के लिए होगा और न विश्वविद्यालय का हित इससे जुड़ा हुआ है.  इसका उपयोग IT सेक्टर को डेवलप करने के लिए होगा. शुद्ध रूप से व्यवसायिक कार्य के लिए. जबकि विश्वविद्यालय की ज़मीन का रिसर्च एवं शैक्षणिक उद्देश्य के लिए ही उपयोग किया जा सकता है.
2004 में जब आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबु नायडू की सरकार थी तब उन्होंने एक निजी कंपनी, IMG भारत, को 400 एकड़ ज़मीन इस समझदारी के साथ उपयोग करने की इजाजत दी कि वह उस ज़मीन का खेल संबंधी सुविधाओं के विकास के लिए करेगा. शर्त ये थी कि अगर वह 4 साल तक उस जमीन का उपयोग खेल संबंधी सुविधाओं के विकास के लिए नहीं कर पायेगा तो वह ज़मीन पुनः विश्वविद्यालय के पास चली जायेगी. निर्धारित अवधि तक IMG भारत इस शर्त को पूरा नहीं कर पाया और ज़मीन छोड़ने को भी तैयार नहीं हुआ. मामला कोर्ट में गया. ज़मीन के स्वामित्व को लेकर तेलंगाना सरकार और IMG भारत के बीच न्यायालय में लड़ाई शुरू हुई. लंबे अर्से के बाद 2025 में फैसला तेलंगाना सरकार के पक्ष में आया. कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने विश्वविद्यालय की ज़मीन को अपना बताया और उसे नीलाम करने को ठान लिया. विज्ञापन निकाला- 8 मार्च से 14 मार्च 2025 नीलामी का दिन. 
 
13 मार्च का ‘बचाओ मशरूम रॉक’ आंदोलन 
विश्वविद्यालय के जिस भाग में 400 एकड़ ज़मीन पड़ती है,  उससे विश्वविद्यालय के छात्रों का भावात्मक लगाव इसलिए भी ज्यादा है कि उस जगह पर कई झीलें, रॉक और घने जंगल हैं.  जानवरों के साथ कई तरह की ऐसी प्रजातियां भी पायी जाती हैं जो विलक्षण हैं और यहीं पाए जाते हैं. और खास बात यह है कि हाल में विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा अर्थशास्त्र, गणित और प्रबंधन आदि की पढ़ाई के लिए नयी बिल्डिंग भी उधर ही बनवाई गई है. सरकारी विभाग द्वारा प्रचारित ज़मीन की नीलामी की सूचना से विद्यार्थियों में रोष प्रकट हुआ और छात्र संघ ने आंदोलन की शुरूआत कर दी. 
 
छात्रों का पहला प्रदर्शन 13 मार्च को हुआ. उस समय कैंपस में बड़ी संख्या में पुलिस की तैनाती देखने को मिली. छात्र संघ के आह्वान पर ‘बचाओ महरूम रॉक’ के नारे के साथ बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय के छात्र,  शिक्षक और वर्करों ने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया. यह धरना प्रदर्शन दिनभर चला. बड़े स्तर पर विश्वविद्यालय समुदाय के बीच एकता स्थापित हुई. लड़ाई को सुव्यवस्थित तरीके से चलाने के उद्देश्य से उसी दिन JAC (Joint Action Committee) का भी निर्माण हुआ, जिसमें छात्र, शिक्षक और वर्कर संघ शामिल हुए.
13 मार्च के इस धरना प्रदर्शन ने न सिर्फ विश्वविद्यालय परिसर में अपना असर छोड़ा, बल्कि सरकारी हलके में भी इसका असर देखने को मिला. सरकार की तरफ से कोई आधिकारिक सूचना ज़मीन की नीलामी को लेकर नहीं आयी. एक तरह से सरकार ने नीलामी की प्रक्रिया को स्थगित कर दिया. 
 
30 मार्च को बड़ी संख्या में छात्रों की गिरफ्तारी 
13 मार्च का जो धरना प्रदर्शन था, उसको देखते हुए किसी को भी यह भरोसा नहीं हो रहा रहा था कि सरकार इस मामले को लेकर कोई जल्दबाज़ी करेगी. कैंपस के लोगों को यह लग रहा था कि मई महीने में इस सत्र की परीक्षा की समाप्ति के बाद जब ज्यादातर स्टूडेंट घर चले जायेंगे तभी सरकार कोई कदम उठा सकती है. लेकिन इसका उल्टा हुआ. तेलंगाना सरकार ने आनन-फानन में, जब कैंपस में तीन दिनों की छुट्टी थी, अपना काम शुरू कर दिया. ईद और उगादी (तेलगु त्योहार) था. बहुत से स्टूडेंट घर गए हुए थे. इसी को देखते हुए बड़ी संख्या में पुलिस की कैंपस में तैनाती हुई. ईस्ट कैंपस (जिधर की ज़मीन सरकार हड़पने की कोशिश कर रही है) जाने के रास्ते को बैरिकेड्स से ब्लॉक कर दिया. और अंदर JCB से पेड़ों और जंगलों की कटाई शुरू कर दी. लगभग 20 JCB एक साथ कार्य कर रही थी. 
छात्रों को यह खबर लगी तो वे वहां पहुंचे और पुलिस ये पूछना शुरू किया कि आख़िर मेरे ही कैंपस में आप हमें आने-जाने से कैसे रोक सकते हैं? पुलिस और छात्रों में थोड़ी बहुत कहासुनी हुई. इसी बीच कुछ छात्रों को पुलिस ने उठाया और गाड़ी में बंद कर दिया. छात्रों से मोबाइल भी छीनने की कोशिश हुई. महिला छात्रों के साथ बदतमीजी की गई. विरोध करने पर पुलिस ने सख्ती बरतनी शुरू की और उस गाड़ी को कैंपस से बाहर भेज दिया. लगभग एक घंटे तक गाड़ी में बंद छात्र-छात्राओं को शहर में घुमाया गया, हल्ला करने, चीखने-चिल्लाने के बाद गाड़ी पुलिस स्टेशन पर पहुंची. पुलिस स्टेशन में भी पुलिस कर्मियों का व्यवहार छात्रों को डराने वाला था. 
छात्रों की गिरफ्तारी की ख़बर पूरे कैंपस में फैल गई. उसके विरोध में बड़ी संख्या में छात्र ईस्ट कैंपस पहुंचे. पुलिस और JCB, दोनों का विरोध किया. छात्रों ने पुलिस से JCB को बंद कराने की मांग की. छात्र किसी भी स्थिति में अपने कैंपस में JCB से जंगल और पेड़ उजाड़ने के पक्ष में नहीं थे. विरोध तीखा होते गया. पुलिस ने ज़ोर-ज़बरदस्ती की और छात्रों की भीड़ को तोड़ने के उद्देश्य से गिरफ्तारी करने लगी. उन्होंने महिला छात्रों के साथ मारपीट की, उसके कपड़े और बाल नोचे. बड़ी संख्या में छात्रों को गिरफ़्तार कर अलग-अलग पुलिस स्टेशन में बंद किया. मीडिया या अखबार के किसी भी आदमी को कैंपस में आने से रोक दिया. सरकार की यह योजना थी कि किसी तरह की खबर को बाहर नहीं जाने देना है.
देर रात सारे छात्रों को पुलिस स्टेशन से छोड़ा गया लेकिन नवीन एर्रम और रोहित बोन्ड को पुलिस ने नहीं छोड़ा. पुलिस के साथ मारपीट, सरकारी कामों में व्यवधान पैदा करने आदि झूठे मुक़दमे उनके ऊपर डाल दिया. काफ़ी मेहनत मशक्कत के बाद लगभग दो सप्ताह बाद इन लोगों को कोर्ट से बेल करवाना पड़ा. 
सरकार का कहना है कि यह यूनिवर्सिटी की ज़मीन नहीं है 
तेलंगाना की कॉंग्रेस सरकार भी भाजपा जैसे ही काम करती है. वह भी पूंजीपतियों के खजाने को बढ़ाने के लिए उतना ही प्रतिबद्ध है जितना भाजपा की केंद्र या राज्यों की सरकार. यह सरकार भी किसी भी स्थिति में इस 400 एकड़ ज़मीन को पूंजीपतियों को देने का मन बना चुकी है. इसलिए इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सरकार के लोगों ने जिस एक बात को सबसे ज्यादा प्रचारित किया वह यह कि यह ज़मीन विश्वविद्यालय की नहीं है. बात सही है, न कि सिर्फ वह 400 एकड़ ज़मीन, जिसे सरकार नीलाम करना चाहती है, बल्कि कैंपस की सारी ज़मीन सरकार की है. यह ज़मीन बस विश्वविद्यालय के नाम आवंटित है, लेकिन इसका मालिकाना हक विश्वविद्यालय के पास नहीं है; राज्य के पास है. राज्य की ज़मीन राज्य के लोगों की ज़मीन होती है, यह किसी पार्टी या मुख्यमंत्री की नहीं होती है. बस कॉंग्रेस की सरकार विश्वविद्यालय की जमीन हड़प उसे पूंजीपतियों को देना चाहती है. स्वामित्व के नाम पर वह राज्य के लोगों में भ्रम पैदा करने की साज़िश कर रही है. थोड़ी सी भी भलमनसाहत अगर उनके अंदर होती तो विश्वविद्यालय की ज़मीन का मालिकाना विश्वविद्यालय को दे देती. उल्टे विश्वविद्यालय की प्रदत्त ज़मीन को हड़पने की कोशिश नहीं करती. यह सबकुछ तेलंगाना की कॉंग्रेस सरकार की शिक्षा विरोधी चरित्र को दिखाता है. यह भी दर्शाता है कि कॉंग्रेस शिक्षा संस्थानों पर हमला करने में भाजपा से थोड़ा भी पीछे नहीं है. 
जब तेलंगाना विधानसभा भवन में विपक्ष के नेताओं ने उनसे हैदराबाद विश्वविद्यालय की 400 एकड़ ज़मीन को लेकर सवाल किया तो जवाब में उन्होंने कहा कि कैंपस में कोई हिरण; मोर नहीं रहता; कैंपस में सिर्फ लोमड़ी रहती है जो विकास को बाधित करना चाहती है. उनकी यह टिप्पणी उन छात्रों के ऊपर थी जो विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहे थे. इससे भी बड़े दुख की बात यह है कि इसी विश्वविद्यालय से पढ़े उनके मंत्रियों ने भी इसी तरह की बेफिजूल बातें कीं जिसने छात्रों को आहत भी किया और उनके अंदर रोष भी पैदा किया. 
 इस पूरे आंदोलन में कॉंग्रेस की छात्र ईकाई NSUI के छात्र हितैषी होने के नकली नारों का पर्दाफाश हो गया. उसने पूरी प्रतिबद्धता अपनी मुनाफाखोर पार्टी कॉंग्रेस की तरफ दिखाई. छात्र समुदाय में लगातार भ्रम फैलाने की भी कोशिश की. अपने लोगों को भेज आंदोलन को तोड़ने और मुद्दे से भटकाने की साज़िश तो चलती ही रही. उनके नेताओं ने tv चैनल पर गलत सूचनाओं का सहारा ले छात्रों के आंदोलन को नीचा दिखाने का भी कुत्सित प्रयास किया.

03 अप्रैल  : सुप्रीम कोर्ट का फैसला 
तेलंगाना सरकार की इस मनमानी का विरोध कैंपस और कैंपस के बाहर व्यापक स्तर पर देखने को मिला. शहर के बुद्धिजीवी, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और पर्यावरण संरक्षण को लेकर काम करने वाले कई NGO भी इस मुहिम का हिस्सा बने.
सबसे अहम काम VATA FOUNDATION ने किया. जंगल की कटाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट में PIL डाला. प्रसिद्ध वकील निरंजन रेड्डी ने हमारे पक्ष में बात रखते हुए सरकार के सभी गैर कानूनी कामों को कोर्ट के सामने रखा. माननीय सुप्रीम कोर्ट सरकार को फटकार लगाई. उन्होंने त्वरित रूप से कैंपस से JCB को बाहर हटाने का निर्देश दिया. कैंपस से पुलिस हस्तक्षेप को भी खत्म करने को कहा. और सुनवाई के लिए आगे का डेट दिया.
विगत 15 मई को फिर से सुनवाई हुई. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि सरकार को फिर वहां पेड़ लगाने होंगे, जंगल का काटना किसी भी स्थिति में सहा नहीं जायेगा. हालांकि सरकार के लोगों ने पेड़ लगाने के अभियान को अभी भी शुरू नहीं किया है. सरकार पूरी निर्लज्जता के साथ बस झूठ बोलते जा रही है.
विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक उम्मीद की तरह है. लगातार सुनवाई चल रही है. छात्र आगे की सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं. अगली सुनवाई की तारीख है- 23 जुलाई.
 
राहुल गांधी की चुप्पी और यूनिवर्सिटी की ज़मीन की स्वामित्व की लड़ाई 
इस पूरे मामले में विपक्ष के सबसे बड़े नेता, देश में संविधान बचाने के आंदोलन के झंडाबरदार, शिक्षा और रोज़गार की बात करने वाले राहुल गांधी पूरी तरह से चुप्पी साधे रहे. कहीं से उनकी कोई टिप्पणी सुनने को नहीं आयी. जबकि तेलंगाना की कॉंग्रेस सरकार के इस मामले में शामिल होने की वज़ह से बड़े असरदार तरीके वे इसमें हस्तक्षेप कर सकते थे. छात्रों ने पहल कर के उनसे मिलने की कोशिश भी की. लेकिन सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए वे मीटिंग को राजी नहीं हुए. बड़े बब्बर शेर बनने वाले राहुल गांधी छात्रों से डर गए, मुकर गए.
अभी विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है विश्वविद्यालय की ज़मीन का स्वामित्व विश्वविद्यालय को दिलाने के लिए एक बड़े आंदोलन की तैयारी करना. यह एक बड़ी लड़ाई होगी. विश्वविद्यालय परिसर के लोग इस लड़ाई के लिए तैयार हैं. अपने हक के लिए ज़रूर लड़ेंगे. कभी न कभी जीत अवश्य होगी!